कवर्धा / भोरमदेव महोत्सव के दौरान हुए उपद्रव को लेकर कबीरधाम पुलिस की कार्रवाई पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं। पुलिस ने दो आरोपियों को भारतीय न्याय संहिता (BNSS) की धारा 170 के तहत गिरफ्तार किया, लेकिन विवाद तब खड़ा हुआ जब आरोपियों का आधा सिर मुंडवाकर उनका वीडियो सार्वजनिक किया गया। यह कदम पुलिस की कानूनी कार्रवाई से अधिक अपमानजनक दंड जैसा प्रतीत हो रहा है। सवाल यह है कि क्या पुलिस को ऐसी कार्रवाई करने का अधिकार है? क्या लोकतंत्र में न्यायालय के स्थान पर पुलिस स्वयं न्यायाधीश बन गई है?
न्याय से पहले सजा पर उठे सवाल
आरोपियों का सिर मुंडवाना किसी भी कानूनी प्रावधान में दर्ज नहीं है। अगर दोष साबित नहीं हुआ था तो पुलिस ने इस तरह का सार्वजनिक अपमान क्यों किया? यह एक ऐसा प्रश्न है जो न केवल कानूनविदों को बल्कि आम जनता को भी विचलित कर रहा है। कानून का स्पष्ट प्रावधान है कि किसी भी आरोपी को न्यायालय में पेश किया जाए, सबूतों के आधार पर न्याय हो और तभी सजा दी जाए। लेकिन कबीरधाम पुलिस ने न्याय से पहले सजा देने का जो तरीका अपनाया है, वह पूरी तरह से कानून के दायरे से बाहर प्रतीत होता है।
कबीरधाम पुलिस पर पहले भी लग चुके हैं दाग
यह पहली बार नहीं है जब कबीरधाम पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठे हैं। इससे पहले कवर्धा के लोहारीडीह में एक गिरफ्तार व्यक्ति की जेल में मौत की घटना ने भी पुलिस की कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़े किए थे। अब भोरमदेव महोत्सव में हुई घटना ने पुलिस की छवि को और अधिक धूमिल किया है।
लोकतंत्र में कानून सर्वोपरि
लोकतंत्र में कानून से ऊपर कोई नहीं है, चाहे वह आम नागरिक हो या कानून लागू करने वाली एजेंसी। पुलिस की इस कार्रवाई ने न केवल आरोपियों के अधिकारों का उल्लंघन किया है बल्कि यह एक खतरनाक उदाहरण भी प्रस्तुत किया है। यह आवश्यक है कि ऐसे मामलों की निष्पक्ष जांच हो और दोषियों को न्याय के कटघरे में खड़ा किया जाए।
कबीरधाम पुलिस की यह कार्यवाही न केवल कानून के विरुद्ध है बल्कि मानवाधिकारों का भी उल्लंघन करती है। यह समय है कि पुलिस प्रशासन अपनी कार्यप्रणाली में सुधार लाए और यह सुनिश्चित करे कि कानून का पालन पूरी निष्पक्षता और पारदर्शिता के साथ किया जाए।