00 ग्राम पंचायत देवटिकरा के देवगढ धाम का है गौरवशाली इतिहास
सरगुजा / प्राकृतिक सुषमा से आच्छादित ऋषि मुनियों देवी देवताओं की पावन तपोवन स्थली जिसे प्राचीन काल में दण्डकारण्य तथा सुरगुंजा नाम से जाना जाता था। यह क्षेत्र अपने भीतर कई इतिहास समेटे हुए है जिसमें मुख्य रूप से ग्राम पंचायत देवटिकरा के देवगढ धाम की अपनी विशेषता है। यहां मान्यता है कि महाकवि कालीदास ने मेघदूत की रचना यहीं पर की थी। वहीं देवगढ धाम से पश्चिम दिशा की ओर कलचा नामक गांव में 2 किलो मीटर की दूरी पर शतमहला है जिसे ऋषि जमदग्नि की पत्नी रेणुका का महल कहा जाता है। यहीं महर्षि परशुराम जी की जन्मस्थली भी है।

जिला मुख्यालय अंबिकापुर से लगभग 35 किलो मीटर दूरी पर उदयपुर ब्लाॅक स्थित है ग्राम पंचायत देवटिकरा। देवटिकरा के देवगढ में भगवान परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि की तपोभूमि है। इसके अलावा द्वादश ज्योर्तिलिंगों का प्राचीन मंदिर अपने भीतर कई इतिहास समेटे हुए है।
कामधेनु के लिए ऋषि हत्या –
ऋषि पत्नी रेणुका के पास एक कामधेनु गाय थी। उसी को लेने के लिए गए इतिहास प्रसिद्ध वीर राजा सहस्त्रार्जुन कीर्तिवीर ने आक्रमण कर कामधेनु को अपने अधिकार में ले लिया और ऋषि जमदग्नि का वध कर दिया। जमदग्नि और रेणुका के पुत्र परशुराम थे जो प्राचीन भारत के ऐतिहासिक तेजस्वी पुरूष थे। जिनका संबंध रामायण समकालीन था।

देवगढ से दक्षिण-पूर्व की ओर लगभग 22 कि.मी. की दूरी पर ‘‘परहापारा‘‘ है जिसे अब महेशपुर कहा जाता है। परहापारा जो परशुराम का अपभ्रंश है परशुराम जी का आश्रम था । परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि के हंता सहस्त्रार्जुन को पराशस्त करने के लिए भगवान भीमशंकर की संपूर्ण भक्ति भावना के साथ तपस्या कर पाशुपत अस्त्र प्राप्त किया। परशु धारण करने के कारण उन्हें टांगी नाथ देवता के नाम से जानते है जो सरगुजा के प्रसिद्ध देव हैं।

जनश्रुति के अनुसार ऋषि जमदग्नि अपनी पत्नी रेणुका के साथ अपने आश्रम में थे। इसी दौरान सहस्त्रार्जुन शिकार करके लौट रहे थे । आश्रम में पहुंचने पर ऋषि ने उनका काफी आदर-सत्कार किया। इस दौरान कामधेनु गाय को देखकर सहस्त्रार्जुन ने ऋषि से कामधेनु की मांग की। जिसे ऋषि ने अस्वीकार कर दिया। तब सहस्त्रार्जुन ने ऋषि की हत्या कर कामधेनु ले ली। इसकी जानकारी मिलने के बाद परशुराम ने अपने पिता का प्रतिशोध सहस्त्रार्जुन से ही नहीं लिया बल्कि संपूर्ण हैहय वंश का नाश भी कर दिया। तभी से उनकी धाक संपूर्ण भारतवर्ष में हो गयी। मेघदूत में वर्णित अलकापुरी जिसे कुबेर ने बसाया था। संभवतः परहापारा ही है।

इस प्रसिद्ध स्थल में प्रतिवर्ष सावन में एक माह का मेला भरता है। इसके अलावा महाशिवरात्रि , कार्तिक पूर्णिमा और मकर संक्राति पर विशेष मेला आयोजित होता है जहां दूर-दराज के लोग काफी संख्या में पहुंचते है। स्थल की महत्ता को देखते हुए यहां संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षण-संवर्धन का कार्य भी तेजी से किया जा रहा है।

सरगुजा जिले में बिलासपुर-अंबिकापुर रोड पर स्थित उदयपुर से सूरजपुर रोड पर रेण नदी के तट पर 22 किलोमीटर की दूरी पर देवगढ नामक स्थल स्थित है। सूरजपुर यहां से 16 किलोमीटर दूर रह जाता है। किवदन्ती है कि मतरिंगा पहाड से निकलने वाली रेण नदी का नाम महर्षि परशुराम की माता रेणुका के नाम पर पडा था। देवगढ के परशुराम जी का आश्रम था। प्राचीन मंदिर के कुछ अवशेष यहां पर प्राप्त हुए है। इस मंदिर के गर्भगृह में एकमुखी शिवलिंग जलधारी पर स्थित है। इसके अतिरिक्त नदी देवी सूर्य उमा-महेश्वर भी प्राप्त हुए हैं। इस बारे में संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग छत्तीसगढ का अनुमान है कि यह मंदिर 11वीं-12वीं शती ईश्वी के मध्य निर्मित हुआ होगा।
पुराना है क्षेत्र का इतिहास –
आज से लगभग 1943 अर्धशताब्दी पूर्व देवगढ के गौरवातीत इतिहास मिट्टी में दबे पडे थे। ग्राम जमगला के निवासी विद्यादास तथा उनकी शिष्या को स्वपन में शिवलिंग तथा कई मूर्तियां गडी हुई दिखाई दी थी । यह बात उन्होनें ग्रामीणों को बताई तो वहां खुदाई की गई तब वहां से अर्धनारीश्वर गौरीशंकर द्वादश ज्र्योतिलिंग के साथ कई मूर्तियां खोदी गई। कुछ ही दिनों बाद वहां जनसहयोग से मंदिर का निर्माण कराया गया।

इसी क्षेत्र में बरगद का एक विशाल वृक्ष है जिसकी सैकडों शाखाएं इसके पुराने होने का संकेत देती हैं विशाल बरगद के आसपास प्राचीन मूर्तियों के अवशेष रखे हुए हैं इसके अलावा इसी क्षेत्र में नौ कोनों की एक बावली भी है जिसके पानी का उपयोग ऋषिगण किया करते थे।
शतमहला में थे 121 तालाब –
महर्षि परशुराम की माता रेणुका शतमहला में निवास करती थीं। यहां सात महल थे जिनके भग्नावशेष अभी देखे जा सकते हैं। इस क्षेत्र में उस समय 121 तालाब थे जिनमें से लगभग 100 तालाब सूख गए लेकिन अभी भी 21 तालाब देखे जा सकते हैं। शतमहला में प्रत्येक नवरात्र को महिसासुरमर्दनि की पूजा-अर्चना की जाती है

जनश्रुति है कि राजा दशरथ के द्वारा मृग के धोखे से श्रवण कुमार को यहीं बाण मारा गया था इसलिए इसका नाम श्रवण तालाब पडा। महराज दशरथ ने श्रवण व उसके माता – पिता अंधा-अंधीन का जिस स्थान पर अंतिम संस्कार किया था वहां आज भी घास नहंी उगती है। तालाब से उत्तर की ओर टीलेनुमा जमीन है। बताया जाता है कि श्रवण कुमार यही पर पीपल वृक्ष के नीचे अपने माता-पिता को बैठाकर महमुन्द सागर में पानी लेने गए थे। सभंवतः यह स्थान कभी उत्तर कौशल और दक्षिण कौशल का सीमा रहा होगा। अंधला ग्राम अंधा-अंधीन का अपभ्रंश है।
इनका कहना है ——

यह क्षेत्र जमदग्नि मुनि की तपोस्थली है यहां पहले परशुराम के पिता रहते थे यहीं उनका आश्रम भी था। इसलिए यह क्षेत्र देवगढ धाम के रूप जाना जाता है। जमदग्नि मुनि की जो माता रेणुका है उनका रहने का स्थान जो है वह शतमहला नाम से है। यहां जब नदी बहती है वह भी भगवान परशुराम की माता रेणुका के नाम पर है।
बटेश्वर यादव , उपसरपंच , ग्राम पंचायत देवटिकरा –
इस क्षेत्र का इतिहास अत्यंत गौरवशाली है। महर्षि के परशुराम के माता-पिता जमदग्नि और रेणुका यह तपोभूमि है । देवी रेणुका जहां रहती थीं वहां सात महल थे उसके अब अवशेष ही शेष हैं फिर भी इस क्षेत्र में अभी भी ऐसी कई चीजें है जो इस क्षेत्र की महत्ता को प्रतिपादित करती हैं।
बाल्मीक प्रसाद दुबे , पुरातत्व विभाग कोरिया –
इस क्षेत्र की अपनी विशेष पहचान है। यहीं रहते हुए ऋर्षि जमदग्नि के आश्रम में जब सहस्त्रार्जुन पहुंचे थे तब ऋषि ने उनका काफी आतिथ्य किया था। इस दौरान आश्रम में कामधेनु को देखकर राजा के मन में लालच आ गया और उन्होनें ऋषि की हत्या कर कामधेनु को अपने कब्जे में ले लिया। इसकी जानकारी मिलने पर परशुराम ने संपूर्ण हैहय वंश का ही सर्वनाश कर दिया।